Res-judicata, CPC, Sec-11
प्रांग-न्याय का सिद्धान्त
(Res-Judicata)-CPC,Sec-11
,प्रांग-न्याय (पूर्व-न्याय) दो शब्दों से मिलकर बना है प्राक् और न्याय। जिसका अर्थ है- पू्र्व में किया गया निर्णय। अर्थात् प्रांग-न्याय, न्याय का एक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार ऐसे किसी भी विषय पर जिसमें सम्बन्धित सक्षम न्यायालय द्वारा पहले ही अंतिम निर्णय दिया जा चुका है, व आगे अपील नहीं की जा सकती है तो ऐसा मामला उसी या किसी अन्य न्यायालय में विचारण हेतु प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।
यह सिद्धान्त प्राचीन काल से प्रचलित है। ‘मिताक्षरा’ में जिस ‘पूर्व-न्याय’ के बारे में बताया गया है वह प्रांग-न्याय ही है।
मेकनॉटन (Mac-naughten) और कोलब्रुक्स (Colebrooks) ने भी कहा है कि-
"एक विवाद के लिए एक वाद एवं एक अभिनिश्चय पर्याप्त है।"
(One suit and one decision is enough for any signle dispute)
प्रांग-न्याय को CPC की धारा-11 में परिभाषित किया गया है-
“—सिविल प्रक्रिया की धारा-11 के अनुसारन्यायालय किसी ऐसे वाद का विचारण नहीं करेगा, जिसके विवाद्यक-विषय उसी हक के अधीन उन्हीं पक्षकारों के मध्य या उन पक्षकारों के अधीन जिनके वे या उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत् मुकदमेबाजी करने का दावा करता है, एक ऐसे न्यायालय में जो कि ऐसे परवर्ती वाद जिसमें ऐसा वाद-बिन्दु उठाया गया है, के विचारण में सक्षम है, किसी पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्ष एवं सारतः रहा हो और सुना जा चुका हो तथा अंतिम रूप से ऐसे न्यायालय द्वारा निर्णीत हो चुका हो।”
सरल शब्दों में कहा जा सकता है, कि कोई भी न्यायालय किसी ऐसे विवाद्यक विषय पर विचारण नहीं करेगा जिस वाद के विषय पूर्व अभिनिर्णीत वाद के विषय हों तथा पक्षकारों के मध्य उसी हक के अधीन मुकदमेबाजी के लिए दावा किया गया हो।
Res-judicata लैटिन भाषा का शब्द है, जो दो शब्दों Res और Judicata से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है पूर्व में दिया गया न्याय। प्रस्तुत सिद्धान्त निम्नलिखित तीन लैटिन सूक्तियो (Maxim) पर आधारित है-
1. Interest republicae ut sit finis litium- अर्थात् राज्य का यह कर्तव्य होता है कि वह देखे कि मुकदमेबाजी को बढ़ाया न जाए। राज्य को वाद की बहुलता को रोकना चाहिए।
2. Nemo debet lis vaxari pro eadem- अर्थात् किसी व्यक्ति पर एक ही वाद-कारण हेतु दो बार वाद न लाया जाए। किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध एक ही बात के लिए दो बार परेशान नहीं किया जा सकता है।
3. Res-judicata pro veritate selipoter- अर्थात् सक्षम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को सही और अन्तिम रूप प्रदान किया जाना चाहिए। न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय को अंतिम रूप देकर मुकदमेबाजी को कम किया जाना चाहिये।
Taekwondo and self defense Classes
सिद्धान्त के आवश्यक तत्व
सिविल मामलों में रेस जुडिकेटा हेतु आवश्यक शर्तें
संहिता की धारा 11 में दी गई प्रांग न्याय की परिभाषा के अनुसार सिद्धान्त के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
1. वाद के विषय- परवर्ती वाद के वादपदग्रस्त विषय प्रत्यक्ष व सारवान् रूप से वहीं होने चाहिए जो पूर्व-निर्णीत वाद के विषय रहे हों। यदि वाद के विषय भिन्न हैं तो यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है।
2. वाद के पक्षकार- पू्र्ववर्ती वाद का उन्हीं पक्षकारों के बीच या ऐसे पक्षकारों के बीच, जिनके अधीन वे या उनमें से कोई दावा करते हैं, होना आवश्यक है।यदि पक्षकार भिन्न होंगे तो वहाँ पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होगा।
3. वादों में समान शीर्षक- पश्चातवर्ती तथा पूर्ववर्तीदोनों वादों में एक ही हक के लिए मुकदमेबाजी करना आवश्यक है।
4. सम्बन्धित सक्षम क्षेत्राधिकार न्यायालय- पूर्ववर्ती वाद को विनिश्चित करने वाले न्यायालय का ऐसा न्यायालय होना आवश्यक है, जो कि पश्चातवर्ती वाद का या उस वाद का, जिसमें ऐसा वादपद वाद में उठाया जाए, विचारण करने के लिए सक्षम हो।
5. पश्चातवर्ती वाद में न्यायलय का अन्तिम निर्णय- पश्चातवर्ती वाद में प्रत्यक्षतः और सारतः विवाद्यक विषय का न्यायालय द्वारा पू्र्ववर्ती वाद में अंतिमरूपेण विनिश्चित किया गया होना आवश्यक है।
सिद्धान्त के उद्देश्य
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया है—
1. वाद की बहुलता को रोकना इस सिद्धान्त का एक प्रमुख उद्देश्य है।
2. किसी भी व्यक्ति पर एक ही वाद-कारण के लिए पुनः वाद लाने से रोकना या प्रतिवारित करना इस सिद्धान्त का उद्देश्य है।
3. न्यायालय के निर्णय को सही व अंतिम रूप प्रदान करने के उद्देश्य की पूर्ति हेतु यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है।
वाद गुलाम अब्बास व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य -
(‘Gulaam Abbas & others’ vs ‘State of U.P. & others’)
प्रस्तुत वाद में भी सर्वोच्च न्यायाल (Supreme court) ने प्रांग-न्याय के दो उद्देश्य बताए हैं—
1. मुकदमेबाजी का अन्त, तथा
2. पक्षकारों की दोहरे वाद से सुरक्षा।
Contentual
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteThese are very helpful Sir! Thanks.
ReplyDeleteVery helpful
ReplyDelete