Ut res magis valeat quam pereat

 अर्थान्वयन अमान्य से मान्य करना अच्छा है

(Ut res magis valeat quam pereat)


यह अत्यन्त आवश्यक है कि किसी भी कानून को पूरी तरह से भली-भाँति पढ़ा जाना चाहिए और किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन करते समय कानून के सभी भागों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। किसी उपबन्ध को एकाकीपन से निर्वचित नहीं किया जा सकता है। कभी-कभी शब्दों के अर्थ उसी उपबन्ध में प्रयोग किए गए अन्य शब्दों से तथा कभी उसी कानून में कुछ अन्य उपबन्धों के सन्दर्भ में समझे जाते हैं। परन्तु न्यायालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अन्य उपबन्धों की सहायता से किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन खींच-तान कर नहीं किया जाना चाहिए ऐसा केवल तभी किया जाना चाहिए जब न्यायालय की दृष्टि से विधायिका का ऐसा ही आशय है।

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             जहाँ पर दो अनुकल्प अर्थान्वयन संभव होते हैं तब इस स्थिति में न्यायालय द्वारा उस अर्थ का चयन किया जाता है जो उस पद्धति को, जिसके लिए उस कानून को पारित किया गया है, बनाये रख कर कार्य करता रहे न कि ऐसे जिससे कार्य के पूर्ण होने में समस्याएँ उत्पन्न हों। दोनों निर्वचनों में से वह जो सीमित हो औऱ जिनके माध्यम से विधान का उद्देश्य प्राप्त नहीं होता उसे अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए तथा वह जिससे प्रभावकारी परिणाम मिलते हैं उचित है। इसी सिद्धान्त को अमान्य से मान्य करना अच्छा हैका नियम भी कहते हैं।

            सामान्य अर्थों में समझा जाए तो कहा जा सकता है कि यदि किसी कानून की भाषा ऐसी हो जिसके कारण उसके एक से अधिक औऱ भी अर्थ निकल रहें हों तो ऐसी दशा में सिद्धान्त यह है कि वह अर्थ जो उस अधिनियम के अर्थ को प्रभावहीन बना देगा उसकी तुलना में वह अर्थ जो उस कानून में प्रयोग किए गए शब्दों को प्रभावी बनाता है उसी अर्थ को स्वीकार किया जाना चाहिए। जहाँ तक सम्भव हो कानून में प्रयुक्त सभी शब्दों का अर्थ लिया जाना चाहिए क्योंकि यह आपेक्षा की जाती है कि विधायिका अनावश्यक शब्दों का प्रयोग नहीं करेगी। कानून बनाने वालों को फालतू व निरर्थक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वह निर्वचन जो कानून में प्रयुक्त कतिपय शब्दों को महत्वपूर्ण और उपयोगी बनाता है, उस निर्वचन से श्रेष्ठ है जिससे शब्द अनुपयोगी, शून्य और महत्वहीन हो जाते हों। जब विधायिका किसी कानून के माध्यम से कुछ कहना चाहती है तो यह उपधारणा करना समझदारी है कि उसके द्वारा ऐसा पूर्व में नहीं कहा गया है।


कुछ सम्बन्धित वाद 

 वाद कलकत्ता निगम बनाम  लिबर्टी सिनेमा   ए0आई0आर0        

                                                                               1965 एस0सी0 1107

तथ्य  प्रस्तुत वाद में प्रत्यार्थी प्रत्येक वर्ष वार्षिक मूल्यांकन के आधार पर लाइसेन्स फीस के रूप में अपीलार्थी को 400 रूपये का भुगतान कर रहा था। अपीलार्थी द्वारा सिनेमा कक्ष में बैठने की क्षमता के आधार पर मूल्यांकन की राशि बढ़ाकर 6000 रूपये कर देने के कारण प्रत्य़ार्थी इस राशि को करना पड़ रहा था। प्रत्यार्थी द्वारा एक रिट याचिका के द्वारा चुनौती दी गई। इसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और अपीलार्थी के संकल्प को अभिखण्डित कर दिया।

 निर्णय  उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कानून को अर्थान्वयन के अमान्य से मान्य करना अच्छा हैके सिद्धान्त के आधार पर निर्वचित करने से यह स्पष्ट है कि कलकत्ता नगरपालिका अधिनियम की धारा-548 में वर्णित फीसका अर्थ करहोना चाहिए क्योंकि फीस का सामान्य अर्थ किसी के द्वारा अपनी सेवाएँ देने के बदले में धन लेनाहोता है जो प्रस्तुत दृष्टान्त में अनुपस्थित है। केवल इस निर्वचन से ही उस पद्धति के सुगमतापूर्वक कार्य करने की रक्षा हो सकती है जिसके लिए कलकत्ता नगरपालिका अधिनियम पारित किया गया।


 वादअवतार सिंह बनाम पंजाब राज्य               ए0आई0आर0

                                                                             1965 एस0सी0 666

तथ्य प्रस्तुत वाद में अपीलार्थी अवतार सिंह को विद्युत अधिनियम-1910 की धारा- 39 के अन्तर्गत् विद्युत की चोरी लिए दोषी माना गया, अपीलार्थी ने तर्क दिया कि उसकी दोषसिद्धि को अपास्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि उसके विरुद्ध प्रक्रिया इस अधिनियम की धारा-50 के नहीं प्रारम्भ की गयी क्योंकि उसका प्रारम्भ उस धारा के अन्तर्गत् उल्लिखित लोगों में से किसी के द्वारा नहीं किया गया। प्रत्यार्थी ने यह तर्क दिया कि बिजली की चोरी यद्यपि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-378 के अन्तर्गत् चोरी नहीं है परन्तु विद्युत अधिनियम-1910 की धारा-39 के अन्तर्गत् चोरी होने के कारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा-379 के अन्तर्गत् दण्डनीय है

निर्णय  उच्चतम् न्यायालय अमान्य से मान्य करना अच्छा हैका सिद्धान्त लागू करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि चूंकि यह अपराध अधिनियम विरुद्ध कार्य है संहिता विरुद्ध नहीं। अतः अधिनियम की धारा-50 की आवश्यकताएँ पूरी की जानी चाहिएं थी, परन्तु अभियुक्त, जिसे अधिनियम की धारा-39 के अन्तर्गत् दोषी पाया गया हो, संहिता की धारा-379 के अन्तर्गत् ही दण्डित किया जाएगा।


  वादधूम सिंह बनाम प्रकाश सिंह सेठी     ए0आई0आर0 1975

                                                                               एस0सी0 1012

तथ्यप्रस्तुत वाद में विजयी हुए प्रत्याशी प्रत्यर्थी ने तर्क दिया कि जो प्रत्याशी उसके विरुद्ध हारा है उसके द्वारा दाखिल की गई चुनाव याचिका लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा-86(1) के अन्तर्गत् खारिज कर दी जानी चाहिए क्योंकि अधिनियम की धारा-81(3) में वर्णित औरचारिकताएँ याची द्वारा पूर्ण नहीं की गयी हैं। अपीलार्थी ने यह कहते हुए मध्यक्षेप करने की माँग की कि विजयी घोषित प्रत्यर्थी और चुनाव याची के बीच मिलीभगत है।

निर्णयउच्चतम् न्यायालय ने प्रत्यर्थी के इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अपीलार्थी का आवेदन खारिज कर दिया। उच्चतम् न्यायालय ने अमान्य से मान्य करना अच्छा हैसिद्धान्त लागू किया और कहा कि- ऐसा करने से यह स्पष्ट है कि विधायिका का आशय चुनाव याचिकाओं के अस्वीकार किये जाने पर मध्यक्षेप करने की अनुमति देना नहीं चाहे विजयी प्रत्याशी व चुनाव याची के बीच मिलीभगत हो अथवा न हो। अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है और न ही किसी कानून को उन विलक्षण परिस्थितियों में लागू ही किया जा सकता है जिनमें लागू करने का विधायिका का कोई आशय कभी भी न रहा हो।


वादडी0 सलबाबा  बनाम  भारतीय विधिज्ञ परिषद् ( BCI )

                                                      ए0आई0आर0 2003 एस0सी0 2502 

तथ्यप्रस्तुत वाद में याची डी0 सलबाबा, जो कि एक शारीरिक निःशक्त अधिवक्ता था वह अपने नाम से एक टी0 डी0 बूथ भी चलाता था। भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा एक निश्चित समय-सीमा दिए जाने पर भी उसने अपना बूथ निश्चित समयावधि पूर्ण होने पर भी नहीं छोड़ा। तब भारतीय विधिज्ञ परिषद् ने राज्य विधिज्ञ परिषद् को उस अधिवक्ता का नाम अधिवक्ता नामावली से हटाने का निदेश दिया। उसके बाद अधिवक्ता ने बूथ छोड़ दिया और इस आदेश के विरुद्ध पुनर्विलोकन याचिका दायर की।

निर्णयभारतीय विधिज्ञ परिषद् के आदेश के विरुद्ध अधिवक्ता की पुनर्विलोकन याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अधिवक्ता अधिनियम-1961 की धारा-48कक के अधीन आदेश के साठ दिनों के भीतर की परिसीमा समाप्त हो चुकी थी। उच्चतम् न्यायालय ने उपर्युक्त आदेश को अपास्त करते हुए याची का नामांकन प्रत्यावर्तित (बहाल) कर दिया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त अभियुक्त का अर्थ परिषद् के आदेश की तिथि के वास्तविक या आन्वयिक संसूचना या ज्ञान से  60  दिनों के भीतर है।

 

वाद तिनसुकिया इलेक्ट्रिक सप्लाई बनाम असम राज्य

                           ए0आई0आर0 1990 एस0सी0 123

निर्णय प्रस्तुत वाद में उच्चतम् न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि न्यायालय किसी ऐसे अर्थान्वयन के विपरीत सशक्त रूप से झुकाव रखता है जो किसी कानून को निरर्थक बना देता है। कानून के उपबंध का अर्थान्वयन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे अमान्य से मान्य करना अच्छा है के सिद्धान्त पर आधार पर उसे प्रभावी व सक्रिय बनाया जा सके। यह निःसंदेह सत्य है कि यदि कोई कानून पूरी तरह से अस्पष्ट है तथा उसकी भाषा भी असाध्य व अर्थहीन है तो उस कानून को अस्पष्टता के कारण शून्य करार दिया जा सकता है। उस विधि को संविधान के अनुच्छेद-14 के अन्तर्गत् निरंकुशता अथवा अयुक्तियुक्तता के लिए परखना न्यायिक पुनर्विलोकन में नहीं है परन्तु किसी कानून के अर्थान्वयन में न्यायालय उसके उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए विधायिका के आशय का ध्यान रखता है। अतः यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह यह देखे कि कानून के साथ कैसा बर्ताव किया जा सकता है और वह ऐसा इस बात को सदैव जानते हुए करे कि कानून को अप्रभावी नहीं बल्कि प्रभावी बनाने के लिए पारित किया जाता है और सिर्फ असम्भवता की स्थिति में ही किसी कानून को अव्यवहार्य कहा जाना चाहिए। इस प्रकार न्यायालय ने तिनसुकिया औऱ डिब्रगढ़ बिजली पूर्ति उपक्रम (ग्रहण) अधिनियम-1973 को अव्यवहार्य नहीं माना।

 



  पुस्तक 

कानूनों का निर्वचन 

टी0 भट्टाचार्य


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