उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र (Succession Certificate)

  उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र  (Succession Certificate) उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र (Succession Certificate) एक तरह का कानूनी दस्तावेज है जिसे न्यायालय किसी मृत व्यक्ति की संपत्ति, ऋण या देनदारी को उसके उत्तराधिकारी के सुपुर्द करने के लिए जारी करता है। यह प्रमाण-पत्र इस बात की पुष्टि करता है कि संबंधित व्यक्ति वास्तव में मृतक का विधिक उत्तराधिकारी है।     यहां हम साधारण शब्दों में जानेंगेे कि क्या होता है     उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र? जब कोई व्यक्ति अपनी चल संपत्ति जैसे- बैंक बैलेंस, बीमा राशि, शेयर आदि बिना किसी को वसीयत (Will) किए मर जाता है, तो उसके विधिक उत्तराधिकारी को यह संपत्ति प्राप्त करने के लिए न्यायालय से उत्तराधिकार प्रमाण पत्र (Succession Certificate) बनवाना होता है। न्यायालय उत्तराधिकार प्रमाण-पत्र कैसे जारी करता है और क्या होती है उसकी कानूनी प्रक्रिया  1. याची द्वारा न्यायालय में याचिका दाखिल करना (Petition): सबसे पहले मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाले व्यक्ति को उत्तराधिकार अधिनियम 2005 की धारा - 372  के अंत...

Decree (आज्ञप्ति) क्या होती है?


 सिविल प्रक्रिया संहिता(CPC)


आज्ञप्ति (DECREE)


सिविल प्रक्रिया संहिता(CPC) की धारा 2(2) के अनुसार डिक्री किसी सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया वह निर्णय है जिसमें न्यायालय के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति होती है, जिसके अंर्तगत् न्यायालय ने अपने समक्ष प्रस्तुत वाद में सभी या किन्ही विवादग्रस्त विषयों के संबंध में वाद के पक्षकारों के अधिकारों को निश्चायक रूप से निर्धारित किया है। इसके अंर्तगत् वादपत्र की अस्वीकृति और धारा-144 के अंर्तगत् किसी प्रश्न का अवधारण भी समझा जायेगा किन्तु उसमें

1ऐसा कोई न्यायनिर्णयन नहीं होगा, जिसकी अपील आदेश की अपील   की तरह होती है, या

2. चूक के लिए खारिज करने का कोई आदेश।

 

डिक्री के आवश्यक तत्व

1. न्यायालय के समक्ष किसी वाद में न्याय-निर्णयन

2. न्याय-निर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति

3. औपचारिक अभिव्यक्ति किसी वाद में हो

4विवादग्रस्त सभी या किन्ही विषय-वस्तु के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण

5.  निश्चायक न्याय-निर्णयन

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डिक्री के प्रकार 

1. प्रारम्भिक आज्ञप्ति(Preliminary decree)जब कोई न्यायनिर्णयन किसी वाद  के विवादास्पद विषयों में से सब या किन्ही के संबंध में पक्षकारों के अधिकारों का विनिश्चय करता है, किन्तु वाद का अन्तिम निपटारा नहीं करता, वहाँ वह एक प्रारम्भिक आज्ञप्ति कही जाएगी।

निम्नलिखित मामलों में प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित की जाती है-

I. कब्जा, किराया या मध्यवर्ती लाभों के लिए वाद,

(आदेश 20 नियम 12)

II. प्रशासनिक वाद,

(आदेश 20 नियम 13)

III. अग्रक्रयाधिकार, (हकशुफा)(Pre-emption) हेतु वाद,

(आदेश 20 नियम 14)

IV. भागीदारी की सम्पत्ति के लिए वाद,

(आदेश 20 नियम 15)

V. मालिक व अभिकर्ता को मध्य हिसाब के लिए वाद,

 (आदेश 20 नियम 16) 

VI. विभाजन तथा पृथक् कब्जे के लिए वाद,

   (आदेश 20 नियम 18)  

VII. आदेश 34 के अंतर्गत् निम्नलिखित मामलों में प्रारम्भिक डिक्री                   

पारित की जा सकती है-

i. पुरोबंध वाद (नियम 2)

ii. बंधक संपत्ति के विक्रय के लिए वाद (नियम 4)

iii. विमोचन का वाद (नियम 7)

                यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रारम्भिक आज्ञप्ति केवल ऐसे मामलों में ही पारित की जा सकती है जिसके बारे में संहिता में स्पष्ट रूप से व्यवस्था की गई है।

 

2. अन्तिम आज्ञप्ति(Final decree)जहाँ न्यायनिर्णयन वाद का पू्र्णरूप से निपटारा करता है, वहाँ आज्ञप्ति अन्तिम आज्ञप्ति होती है।कोई भी आज्ञप्ति अन्तिम आज्ञप्ति हो जाती है, यदि वह सक्षम न्यायालय द्वारा पारित की गई हो और उसके विरूद्ध कोई अपील संस्थित न की गई हो।

किसी एक वाद में एक से अधिक प्रारम्भिक या अंतिम आज्ञप्ति नहीं हो सकती।

 

3. अंशतः प्रारम्भिक व अंशतः अंतिम आज्ञप्तिजहाँ न्यायालय दो प्रश्नों का निर्णय़ एक ही डिक्री के माध्यम से देता है, तो ऐसी डिक्री अंशतः प्रारम्भिक तथा अंशतः अंतिम डिक्री होगी।

 

आज्ञप्तिधारी(Decree-holder)- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2(3) के अनुसार “आज्ञप्तिधारी से ऐसा कोई व्यक्ति अभिप्रेत है जिसके पक्ष में आज्ञप्ति पारित की गई है अथवा निष्पादन-योग्य कोई आदेश दिया गया है।

         यदि किसी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में जो किसी वाद में पक्षकार न हो, निष्पादन-योग्य कोई आदेश प्रदान किया जाता है तो ऐसा व्यक्ति आज्ञप्तिधारीकहा जायेगा। कतिपय मामलों में प्रतिवादी भी आज्ञप्तिधारी हो सकता है, परन्तु कुर्की कराने वाला लेनदार इसमें सम्मिलित नहीं है।  

 

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