Res-subjudice (विचाराधीन-न्याय) क्या है? (CPC, sec.10)
विचाराधीन न्याय
Res-subjudice
धारा-10 — वाद का स्थगन् (वाद का रोक दिया जाना)
वाद की बहुलता’ को रोकना अत्यन्त् महत्वपूर्ण है क्योंकि अत्यधिक वादों की संख्या से जहाँ एक ओर न्यायालय का कार्यभार बढ़़ता है वहीं पक्षकारों व राज्य के लिए भी यह अत्यन्त् खर्चीला एवं असुविधाजनक हो जाता है। इसीलिए जहाँ तक हो सके मुकदमेबाजी से बचना चाहिए। परन्तु जहाँ अत्यन्त् आवश्यक हो वहाँ पर यह प्रयास होना चाहिए कि न्यायालय के समक्ष कम से कम वाद संस्थित हों। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता-1908 (CPC) की धारा-10 में विचाराधीन न्याय के रूप में एक आवश्यक प्रावधान है।
सिविल प्रक्रिया संहिता(Civil Procedure code)-1908 के अनुसार—“कोई भी न्यायालय ऐसे वाद के विचारण के लिए अग्रसर नहीं होगा, जिसमें वाद के विषय-वस्तु वही हैं जो प्रत्यक्ष व सारवान् रूप से पूर्व संस्थित वाद के भी विषय-वस्तु हों व उन्हीं पक्षकारों के मध्य जिनके अधीन वे या उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत् मुकदमेबाजी करने का दावा करता है, या जहाँ यह वाद उसी न्यायालय या माँगे गए अनुतोष को स्वीकार करने का क्षेत्राधिकार रखने वाले भारत के किसी अन्य न्यायालय में या भारत की सीमा के बाहर केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रस्थापित या चालू, समान क्षेत्राधिकार रखने वाले न्यायालय में या उच्चतम् न्यायालय के समक्ष लम्बित है।”
किसी वाद का विदेशी न्यायालय में लम्बित होना, उसी कार्यवाही के कारणों पर आधारित वाद के विचारण से भारत के न्यायालयों को वंचित नहीं करता है।
धारा-10,की प्रयोज्यता हेतु आवश्यक शर्तें
(धारा-10,कब लागू होगी?)
धारा-10 की प्रयोज्यता हेतु निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है—
- वाद के विषय़ सारतः एक ही होने चाहिए।
- दोनों वाद समान पक्षकार या उनके प्रतिनिधियों के मध्य होने चाहियें।
- दोनों वादों में एक ही हक के अधीन मुकदमेबाजी होनी चाहिए।
- जिस न्यायालय में पूर्ववर्ती वाद लम्बित है, पश्चातवर्ती वाद में माँगा गया अनुतोष प्रदत्त करने का वह न्यायालय क्षेत्राधिकार रखता हो।
- पूर्ववर्ती संस्थित वाद का उसी न्यायालय जिसमें की पश्चातवर्ती वाद लाया गया है या भारत के किसी अन्य न्यायालय अथवा भारतीय सीमा के बाहर केन्द्र सरकार द्वारा स्थापित किसी न्यायालय, या उच्चतम् न्यायालय के समक्ष लंबित होना चाहिये।
संहिता की धारा-10 में वाद शब्द के अन्तर्गत् ‘अपील’ को भी सम्मिलित किया गया है।
धारा-10 के प्रावधान आज्ञापक (Madatory) हैं, यह धारा पश्चातवर्ती वाद को संस्थित किये जाने से वर्जित नहीं करती है, अपितु उस वाद का विचारण, जिसे रोका गया है, वर्जित करती है।
अपील— धारा-10 के अन्तर्गत् दिए गए प्रार्थना-पत्र को न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिये जाने पर उस आदेश के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती है।
पुनरीक्षण— धारा-10 के अन्तर्गत् पारित आदेश न्यायालय के क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित होता है, अतः इसके विरुद्ध पुनरीक्षण (Rivision) किया जा सकता है।
धारा-10 की अवहेलना का प्रभाव— संहिता की धारा-10 की अवहेलना में न्यायालय द्वारा पारित की गई आज्ञप्ति अकृत (null) नहीं होती है, उसे कार्यान्वित किया जा सकता है।
keep it up
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