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Showing posts from November, 2020

Ut res magis valeat quam pereat

  अर्थान्वयन  अमान्य से मान्य करना अच्छा  है ( Ut res magis valeat quam pereat ) यह अत्यन्त आवश्यक है कि किसी भी कानून को पूरी तरह से भली-भाँति पढ़ा जाना चाहिए और किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन करते समय कानून के सभी भागों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। किसी उपबन्ध को एकाकीपन से निर्वचित नहीं किया जा सकता है। कभी-कभी शब्दों के अर्थ उसी उपबन्ध में प्रयोग किए गए अन्य शब्दों से तथा कभी उसी कानून में कुछ अन्य उपबन्धों के सन्दर्भ में समझे जाते हैं। परन्तु न्यायालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अन्य उपबन्धों की सहायता से किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन खींच-तान कर नहीं किया जाना चाहिए ऐसा केवल तभी किया जाना चाहिए जब न्यायालय की दृष्टि से विधायिका का ऐसा ही आशय है।              जहाँ पर दो अनुकल्प अर्थान्वयन संभव होते हैं तब इस स्थिति में न्यायालय द्वारा उस अर्थ का चयन किया जाता है जो उस पद्धति को, जिसके लिए उस कानून को पारित किया गया है, बनाये रख कर कार्य करता रहे न कि ऐसे जिससे कार्य के पूर्ण होने में समस्याएँ उत्पन्न हों। दोनों निर्वचनों में से वह जो सीमित हो औऱ जिनके माध्यम से विधान का उद्देश्य प्राप्त

वॉरण्ट (Warrant) क्या है?

  वॉरण्ट दंड प्रक्रिया संहिता में वॉरण्ट की परिभाषा कहीं भी नहीं दी गई है परन्तु संहिता के अध्याय 6 में धारा 70 से लेकर धारा 81 तक इससे संबंधित प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों को समझने व जानने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि वॉरण्ट क्या होता है। वॉरण्ट क्या होता है वॉरण्ट न्यायालय को दी गई ऐसी शक्ति है जो किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करके न्यायालय के समक्ष लाए जाने की व्यवस्था करती है। इस शक्ति के अभाव में न्यायालय को अशक्त माना जा सकता है।   वॉरण्ट की अवधि संहिता की धारा 70 में वॉरण्ट कि समय सीमा से संबंधित प्रावधान हैं। इस धारा के अनुसार न्यायालय द्वारा एक बार जारी किया गया वॉरण्ट तब तक प्रभ्राव या प्रवर्तन में रहता है जब तक कि उसे रद्द न कर दिया गया हो अथवा वह निष्पादित न हो गया हो।   वॉरण्ट कब जारी किया जाता है यदि न्यायालय किसी मामले में किसी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करवाना चाहता है तो सबसे पहले वह उस व्यक्ति के नाम पर समन जारी करता है। परन्तु यदि व्यक्ति समन की तामील से बच रहा है अथवा समन लेने से इंकार कर देता है या समन की तामील के बाद भी न्यायालय में हाजिर नहीं होता है तो न

समन ( Summons ) क्या है, इसकी तामील कैसे की जाती है?

  समन क्या है   दण्ड प्रक्रिया संहिता ( CrPC ) 1973 में  समन को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, परन्तु समन को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है।  समन एक तरह का बुलावा पत्र होता है जो न्यायालय मजिस्ट्रेट या किसी अन्य प्राधिकृत अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत् तौर पर एक निश्चित समय व स्थान पर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने अथवा दस्तावेज पेश करने के लिए जारी किया जाता है। अर्थात् समन एक धीमी आदेशिका है जो साक्षियों या अभियुक्तों को पेश होने के लिए जारी की जाती है या दस्तावेज अथवा अन्य किसी वस्तु को प्रस्तुत करने के लिए जारी की जाती है।   समन का प्रारूप दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 61 में समन के प्रारूप के बारे में बताया गया है। धारा 61 के अनुसार समन में निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक होता है - 1.  समन लिखित में होना चाहिए। 2.  समन दो प्रतियों में होना चाहिए। 3.  पीठासीन अधिकारी या अन्य प्राधिकृत अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। 4.  उस पर न्यायालय की मुद्रा लगी होनी चाहिए।                           समन में समन किए गए व्यक्ति का पूरा नाम व पता स्पष्ट लिखा होना च