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Showing posts from August, 2020

Res-judicata, CPC, Sec-11

प्रांग-न्याय का सिद्धान्त (Res-Judicata)-CPC,Sec-11 ,प्रांग-न्याय (पूर्व-न्याय) दो शब्दों से मिलकर बना है  प्राक् और न्याय। जिसका अर्थ है- पू्र्व में किया गया निर्णय। अर्थात् प्रांग-न्याय, न्याय का एक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार ऐसे किसी भी विषय पर जिसमें सम्बन्धित सक्षम न्यायालय द्वारा पहले ही अंतिम निर्णय दिया जा चुका है, व आगे अपील नहीं की जा सकती है तो ऐसा मामला उसी या किसी अन्य न्यायालय में विचारण हेतु प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।                 यह सिद्धान्त प्राचीन काल से प्रचलित है। ‘ मिताक्षरा ’ में जिस ‘ पूर्व-न्याय ’ के बारे में बताया गया है वह प्रांग-न्याय ही है। मेकनॉटन (Mac-naughten) और कोलब्रुक्स (Colebrooks) ने भी कहा है कि- "एक विवाद के लिए एक वाद एवं एक अभिनिश्चय पर्याप्त है।" (One suit and one decision is enough for any signle dispute) प्रांग-न्याय को  CPC   की धारा-11 में परिभाषित किया गया है - “ —सिविल प्रक्रिया की धारा-11 के अनुसार न्यायालय किसी ऐसे वाद का विचारण नहीं करेगा, जिसके विवाद्यक-विषय उसी हक के अधीन उन्हीं पक्षकारों के मध्य या उन पक्षकारों के

Res-subjudice (विचाराधीन-न्याय) क्या है? (CPC, sec.10)

विचाराधीन न्याय Res-subjudice धारा-10 — वाद का स्थगन् ( वाद का रोक दिया जाना ) वाद की बहुलता’ को रोकना अत्यन्त् महत्वपूर्ण है क्योंकि अत्यधिक वादों की संख्या से जहाँ एक ओर न्यायालय का कार्यभार बढ़़ता है वहीं पक्षकारों व राज्य के लिए भी यह अत्यन्त् खर्चीला एवं असुविधाजनक हो जाता है। इसीलिए जहाँ तक हो सके मुकदमेबाजी से बचना चाहिए। परन्तु जहाँ अत्यन्त् आवश्यक हो वहाँ पर यह प्रयास होना चाहिए कि न्यायालय के समक्ष कम से कम वाद संस्थित हों। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता-1908 (CPC) की धारा-10 में विचाराधीन न्याय के रूप में एक आवश्यक प्रावधान है। सिविल प्रक्रिया संहिता(Civil Procedure code)-1908 के अनुसार— “कोई भी न्यायालय ऐसे वाद के विचारण के लिए अग्रसर नहीं होगा, जिसमें वाद के विषय-वस्तु वही हैं जो प्रत्यक्ष व सारवान् रूप से पूर्व संस्थित वाद के भी विषय-वस्तु हों व उन्हीं पक्षकारों के मध्य जिनके अधीन वे या उनमें से कोई उसी हक के अन्तर्गत् मुकदमेबाजी करने का दावा करता है, या जहाँ यह वाद उसी न्यायालय या माँगे गए अनुतोष को स्वीकार करने का क्षेत्राधिकार रखने वाले भारत के

Order (आदेश) क्या है?

  आदेश (order) आदेश न्यायिक-प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण चरण है। आदेश को सिविल प्रक्रिया संहिता ( Civil Procedure code) की धारा-2(14) के अन्तर्गत विधिवत् परिभाषित किया गया है। सिविल प्रक्रिया संहिता ( CPC)   की   धारा-2(14) के अनुसार — “ आदेश से अभिप्राय व्यवहार न्यायालय के निर्णय की ऐसी औपचारिक अभिव्यक्ति से है, जो आज्ञप्ति नहीं है। ” इस परिभाषा के अनुसार कोई भी ऐसा व्यवहार जो आज्ञप्ति( Decree) नहीं, आदेश कहा जायेगा।               किसी भी वाद के संचालन के लिए समय-समय पर न्यायालय वाद की कार्यवाही में आदेश करता रहता है। वाद में किसी भी तरह का आवेदन किया जा सकता है। किसी भी वाद के संस्थित् होने से लेकर निस्तारण होने तक किसी भी प्रक्रिया में न्यायालय द्वारा आदेश दिया जा सकता है। कोई भी आदेश वाद के सभी पक्षकारों के लिए एक ही समय पर किसी एक पक्षकार के पक्ष में तथा अन्य दूसरे पक्षकार के खिलाफ भी हो सकता है। इसमें प्रारम्भिक या अंतिम जैसा कुछ नहीं होता। अवमान (आदेश न मानना) की कार्यवाहियों में प्रायिक रूप से पारित किया जाने वाला आदेश, आदेश न होकर निर्णय होता है। आदेशों के विरूद्ध दूसरी बार अपील

Judgement (निर्णय) से आप क्या समझते हैं?

                                                                        निर्णय़ (Judgement) सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-2(9) के अनुसार —  “ निर्णय से अभिप्राय एक आज्ञप्ति या आदेश के आधारों पर न्यायाधीशों द्वारा किये गए कथन से है। ” एक न्यायाधीश द्वारा इस आशय की घोषणा कि वह क्या निर्णय देने वाला है अथवा मामले का अन्तिम निष्कर्ष क्या निकलने वाला है, तब तक ‘ निर्णय ’ की परिभाषा में नहीं आता जब तक कि उसे प्ररूपी आकार में स्फुटिक( Crystall ized) नहीं कर दिया जाता और उसे खुले न्यायालय में सुना नहीं दिया जाता। निर्णय कब सुनाया जाता है — वाद की सुनवाई समाप्त होने के बाद निर्णय खुले न्यायालय में या तो तुरन्त या यथाशीघ्र भविष्य में किसी दिन सुनाया जाता है। निर्णय यदि भविष्य में किसी दिन सुनाया जाना है तो इस प्रयोजन हेतु न्यायालय एक दिन निश्चित करता है, जिसकी विधिवत् सूचना पक्षकारों या उनके अभिवक्ताओं को दी जाती है। ऐसे निर्णय न्यायालय द्वारा सामान्यतः 30 दिनों के भीतर सुना दिये जाते हैं, किन्तु किन्हीं कारणों से यदि यह सम्भव न हो तो ऐसे कारणों को अभिलिखित किया जायेगा।  परंतु यह अवधि 60 दिनों स

Decree (आज्ञप्ति) क्या होती है?

  सिविल प्रक्रिया संहिता( CPC) आज्ञप्ति  (DECREE)   सिविल प्रक्रिया संहिता( CPC) की धारा 2(2) के अनुसार —  डिक्री किसी सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया वह निर्णय है जिसमें न्यायालय के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति होती है, जिसके अंर्तगत् न्यायालय ने अपने समक्ष प्रस्तुत वाद में सभी या किन्ही विवादग्रस्त विषयों के संबंध में वाद के पक्षकारों के अधिकारों को निश्चायक रूप से निर्धारित किया है। इसके अंर्तगत् वादपत्र की अस्वीकृति और धारा-144  के अंर्तगत् किसी प्रश्न का अवधारण भी समझा जायेगा किन्तु उसमें — 1 .  ऐसा कोई न्यायनिर्णयन नहीं होगा, जिसकी अपील आदेश की अपील   की तरह होती है, या 2.   चूक के लिए खारिज करने का कोई आदेश।   डिक्री के आवश्यक तत्व — 1.   न्यायालय के समक्ष किसी वाद में न्याय-निर्णयन 2.  न्याय-निर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति 3.  औपचारिक अभिव्यक्ति किसी वाद में हो 4 .  विवादग्रस्त सभी या किन्ही विषय-वस्तु के सम्बन्ध में पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण 5.    निश्चायक न्याय-निर्णयन   डिक्री के प्रकार —   1.  प्रारम्भिक आज्ञप्ति (Preliminary decree) — जब कोई न्यायनिर्णयन किसी वाद  के