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चार्जशीट (आरोप-पत्र) क्या है ? WHAT IS CHARGE SHEET IN HINDI ?

चार्जशीट क्या है ? WHAT IS CHARGE SHEET IN HINDI ? चार्जशीट, इसे हिंदी में आरोप-पत्र कहा जाता है। चार्जशीट(आरोप-पत्र) से संबंधित प्रवाधान दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा  173 में दिए गए हैं। सामान्य तौर पर किसी भी आपराधिक मामले में पुलिस को न्यायालय के समक्ष 90 दिनों के भीतर अपनी जांच पूरी कर चार्जशीट पेश करनी होती है। इसी के आधार पर न्यायालय आरोपी के विरुद्ध आरोप तय करता है या फिर आरोप निरस्त कर देता है। क्यों महत्वपूर्ण होती है चार्जशीट (आरोप-पत्र) ? Why is Charge Sheet important? जब भी कोई आपराधिक घटना घटित होती है तो सबसे पहले उस मामले की पुलिस थाने में  FIR  दर्ज की जाती है। FIR दर्ज हो जाने के बाद संबंधित मामले में जांच शुरू होती है और फिर पुलिस को कोर्ट में 90 दिनों के अंदर उस मामले से  संबंधित चार्जशीट दाखिल करनी होती है। यदि किसी कारण से जांच में अधिक समय लगता है तो पुलिस द्वारा 90 दिनों के बाद भी चार्जशीट दाखिल की जा सकती है, लेकिन ऐसी स्थिति में संबंधित मामले में आरोपी व्यक्ति जमानत (bail, बेल) का हकदार हो जाता है, इसलिए पुलिस की यह कोशिश होती है कि वह किसी भी आपराधिक मा

AFFIDAVIT FOR ANTI-RAGGING format in English

                                                         AFFIDAVIT FOR ANTI-RAGGING   I, …………………………………………….. , S/o………………………………… ,R/o ………………………………………….do hereby solemnly state and affirm as under :-   a.  I undertake that I shall not disobey any rule of the University and shall not indulge in any incidence of ragging and other criminal activities. I assure that I shall neither insists nor instigate any person for action, which may vitiate the academic atmosphere of the University.   b.  I, also undertake that I shall not be engaged on any social media plateform to share or propagate any activity which may damage the image of University.   c.  If, I do not abide by aforesaid undertaking/declaration, the University may take apropriate action to the extent of rustication and initiation of legal proceedings against me.                                                      (Signature of student)   Verification   Verified that the contents of this affidavit are true to the best of my knowledge

Injuria sine damno (बिना हानि के क्षति)

बिना हानि के क्षति ( injuria sine damno )  बिना हानि के क्षति का तात्पर्य है कि हालांकि वादी को क्षति (विधिक क्षति) हुई है, अर्थात् उसमें निहित किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ है किन्तु उसको चाहे कोई हानि कारित न हुई हो, वह फिर भी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद ला सकता है। Injuria sine damno  एक लैटिन सूक्ति है, जिसका सामान्य अर्थ है " बिना क्षति के हानि ", यह सूक्ति 2 लैटिन शब्दों  injuria और  damno से मिलकर बनी है जिसमें -- injuria का अर्थ है – किसी अधिकार का उल्लंघन, तथा damno का अर्थ है – वास्तविक क्षति अथवा नुकसान इस सूत्र का अर्थ है कि यदि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकार का उल्लंघन होता है तो वादी को वाद दायर करने का अधिकार होगा चाहे उस अधिकार के उल्लंघन से उसे कोई भी वास्तविक हानि या क्षति न हुई हो। अतः इस सूत्र के अनुसार अपकृत्य के लिए मात्र यह सिद्ध करना ही आवश्यक है कि विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है तथा वास्तविक हानि या नुकसानी को सिद्ध करना आवश्यक नही है |   वाद - ऐशबी बनाम ह्वाइट  (1703)   उपरोक्त वाद में ही ‘बिना हानि के क्षति ’ (Injuria sine damno)   सूत्र सर्वप्रथम

अन्तराभिवाची वाद (Interpleader suit)

  अन्तराभिवाची   वाद क्या है ?   अन्तराभिवाची वाद   सामान्यतया कोई भी वाद वादियों व प्रतिवादियों के बीच होता है परन्तु अन्तराभिवाची वाद में विवाद वादी व प्रतिवादी के बीच न होकर प्रतिवादियों के बीच ही होता है। वादी वाद की विषय - वस्तु में किसी भी प्रकार का कोई हित नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो जब प्रतिवादियों में आपस में वाद की विषय - वस्तु के  स्वामित्व के लिए वाद होता है उसे अन्तराभिवाची वाद कहते हैं।   अन्तराभिवाची वाद से संबंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 88 और आदेश 35 में किए गए हैं।   सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के अनुसार   जहाँ दो या अधिक व्यक्ति उसी ऋण , धनराशि या चल या अचल संपत्ति के बारे में एक दूसरे के प्रतिकूल दावा किसी ऐसा अन्य व्यक्ति से करते हैं जिसका ऐसी संपत्ति के प्रभारों और खर्चों से अलग और कोई हित नहीं होता और ऐसे अन्य व्यक्ति उस संपत्ति को अधिकारवान् दावेदार को देने के लिए तैयार है , वहाँ ऐसा अन्य व्यक्ति ऐसे सभी दावेदारों के खिलाफ एक अन्तराभिवाची वाद इस उद्देश्य से संस्थित करेगा कि इस बात का विनिश्चय किया जा सके कि संपत्ति किसे

Ut res magis valeat quam pereat

  अर्थान्वयन  अमान्य से मान्य करना अच्छा  है ( Ut res magis valeat quam pereat ) यह अत्यन्त आवश्यक है कि किसी भी कानून को पूरी तरह से भली-भाँति पढ़ा जाना चाहिए और किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन करते समय कानून के सभी भागों को एक साथ लेकर चलना चाहिए। किसी उपबन्ध को एकाकीपन से निर्वचित नहीं किया जा सकता है। कभी-कभी शब्दों के अर्थ उसी उपबन्ध में प्रयोग किए गए अन्य शब्दों से तथा कभी उसी कानून में कुछ अन्य उपबन्धों के सन्दर्भ में समझे जाते हैं। परन्तु न्यायालय को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अन्य उपबन्धों की सहायता से किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन खींच-तान कर नहीं किया जाना चाहिए ऐसा केवल तभी किया जाना चाहिए जब न्यायालय की दृष्टि से विधायिका का ऐसा ही आशय है।              जहाँ पर दो अनुकल्प अर्थान्वयन संभव होते हैं तब इस स्थिति में न्यायालय द्वारा उस अर्थ का चयन किया जाता है जो उस पद्धति को, जिसके लिए उस कानून को पारित किया गया है, बनाये रख कर कार्य करता रहे न कि ऐसे जिससे कार्य के पूर्ण होने में समस्याएँ उत्पन्न हों। दोनों निर्वचनों में से वह जो सीमित हो औऱ जिनके माध्यम से विधान का उद्देश्य प्राप्त

वॉरण्ट (Warrant) क्या है?

  वॉरण्ट दंड प्रक्रिया संहिता में वॉरण्ट की परिभाषा कहीं भी नहीं दी गई है परन्तु संहिता के अध्याय 6 में धारा 70 से लेकर धारा 81 तक इससे संबंधित प्रावधान किए गए हैं। इन प्रावधानों को समझने व जानने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि वॉरण्ट क्या होता है। वॉरण्ट क्या होता है वॉरण्ट न्यायालय को दी गई ऐसी शक्ति है जो किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करके न्यायालय के समक्ष लाए जाने की व्यवस्था करती है। इस शक्ति के अभाव में न्यायालय को अशक्त माना जा सकता है।   वॉरण्ट की अवधि संहिता की धारा 70 में वॉरण्ट कि समय सीमा से संबंधित प्रावधान हैं। इस धारा के अनुसार न्यायालय द्वारा एक बार जारी किया गया वॉरण्ट तब तक प्रभ्राव या प्रवर्तन में रहता है जब तक कि उसे रद्द न कर दिया गया हो अथवा वह निष्पादित न हो गया हो।   वॉरण्ट कब जारी किया जाता है यदि न्यायालय किसी मामले में किसी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करवाना चाहता है तो सबसे पहले वह उस व्यक्ति के नाम पर समन जारी करता है। परन्तु यदि व्यक्ति समन की तामील से बच रहा है अथवा समन लेने से इंकार कर देता है या समन की तामील के बाद भी न्यायालय में हाजिर नहीं होता है तो न

समन ( Summons ) क्या है, इसकी तामील कैसे की जाती है?

  समन क्या है   दण्ड प्रक्रिया संहिता ( CrPC ) 1973 में  समन को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, परन्तु समन को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है।  समन एक तरह का बुलावा पत्र होता है जो न्यायालय मजिस्ट्रेट या किसी अन्य प्राधिकृत अधिकारी द्वारा किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत् तौर पर एक निश्चित समय व स्थान पर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने अथवा दस्तावेज पेश करने के लिए जारी किया जाता है। अर्थात् समन एक धीमी आदेशिका है जो साक्षियों या अभियुक्तों को पेश होने के लिए जारी की जाती है या दस्तावेज अथवा अन्य किसी वस्तु को प्रस्तुत करने के लिए जारी की जाती है।   समन का प्रारूप दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 61 में समन के प्रारूप के बारे में बताया गया है। धारा 61 के अनुसार समन में निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक होता है - 1.  समन लिखित में होना चाहिए। 2.  समन दो प्रतियों में होना चाहिए। 3.  पीठासीन अधिकारी या अन्य प्राधिकृत अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। 4.  उस पर न्यायालय की मुद्रा लगी होनी चाहिए।                           समन में समन किए गए व्यक्ति का पूरा नाम व पता स्पष्ट लिखा होना च