अन्तराभिवाची वाद (Interpleader suit)
अन्तराभिवाची वाद क्या है ?
अन्तराभिवाची वाद
सामान्यतया कोई भी वाद वादियों व प्रतिवादियों के बीच होता है परन्तु अन्तराभिवाची वाद में विवाद वादी व प्रतिवादी के बीच न होकर प्रतिवादियों के बीच ही होता है। वादी वाद की विषय-वस्तु में किसी भी प्रकार का कोई हित नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो जब प्रतिवादियों में आपस में वाद की विषय-वस्तु के स्वामित्व के लिए वाद होता है उसे अन्तराभिवाची वाद कहते हैं।
अन्तराभिवाची वाद से संबंधित प्रावधान सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 88 और आदेश 35 में किए गए हैं।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के अनुसार
जहाँ दो या अधिक व्यक्ति उसी ऋण , धनराशि या चल या अचल संपत्ति के बारे में एक दूसरे के प्रतिकूल दावा किसी ऐसा अन्य व्यक्ति से करते हैं जिसका ऐसी संपत्ति के प्रभारों और खर्चों से अलग और कोई हित नहीं होता और ऐसे अन्य व्यक्ति उस संपत्ति को अधिकारवान् दावेदार को देने के लिए तैयार है , वहाँ ऐसा अन्य व्यक्ति ऐसे सभी दावेदारों के खिलाफ एक अन्तराभिवाची वाद इस उद्देश्य से संस्थित करेगा कि इस बात का विनिश्चय किया जा सके कि संपत्ति किसे परिदान करना है या अगर ऋण है तो किसको संदाय करना है।
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अन्तराभिवाची वाद के लिए आवश्यक शर्तें — अन्तराभिवाची वाद हेतु निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक है।
1. प्रतिवादी एक दूसरे के विरुद्ध संपत्ति के स्वामित्व का दावा करते हैं।
2. अन्य व्यक्ति का वाद की विषय वस्तु में कोई हित नहीं होना चाहिए।
3. वाद की विषय वस्तु अर्थात् सम्पत्ति किसी अन्य व्यक्ति के पास होनी चाहिए।
4. अन्य व्यक्ति उस संपत्ति को उसके स्वामी को देने को तैयार हो।
5. अन्य व्यक्ति उस विवादित संपत्ति के प्रभार व खर्चों के अलावा कोई और दावा न करता हो।
6. वादी व प्रतिवादियों के बीच कोई दुस्सन्धि नहीं होनी चाहिए।
अन्तराभिवाची वाद की प्रक्रिया के संबंध में संहिता के आदेश 35 में प्रावधान किया गया है।
आदेश 35
अन्तराभिवाची वाद
नियम 1
एक अन्तराभिवाची वाद में आवश्यक कथनों के अतिरिक्ति निम्नलिखित कथन भी लिखे जायेंगे —
a) यह कि वादी का प्रभारों या खर्चों के अतिरिक्त विवाद की विषय वस्तु में और कोई हित नहीं है।
b) यह कि प्रतिवादीगण अलग अलग दावा कर रहे हैं।
c) यह कि वादी व प्रतिवादियों में से किसी भी प्रतिवादी के बीच किसी भी प्रकार की दुरभिसन्धि नहीं है।
नियम 2
यदि दावाकृत वस्तु न्यायालय में जमा की जा सकती है या उसकी अभिरक्षा में रखी जा सकती है तो वाद से अपेक्षा की जा सकती है कि वादी वाद में किसी भी आदेश का हकदार होने से पूर्व ही वस्तु को न्यायालय की अभिरक्षा में दे देगा।
नियम 3
जहाँ अन्तराभिवाची वाद के प्रतिवादियों में से कोई प्रतिवादी वादी पर ऐसे वाद की विषय वस्तु की बाबत वास्तव में वाद चल रहा है वहाँ वह न्यायालय जिसमें वादी के विरुद्ध वाद लंबित है, उस न्यायालय द्वारा जिसमें अन्तराभिवाची वाद संस्थित किया गया है इत्तिला दिये जाने पर वादी के विरुद्ध कार्यवाहियों को रोक देगा और ऐसे रोके गए वाद में वादी के जो खर्चे हुए हों वे ऐसे वाद में उपबन्धित नहीं किए जा सकेंगे। किन्तु यदि और जहाँ तक वे उस वाद में उपबन्धित नहीं किए जाते हैं तो वहाँ तक अन्तराभिवाची वाद में उपगत उनके खर्चों में जोड़े जा सकेंगे।
नियम 4
1. पहली सुनवाई में न्यायालय
a) वादी की प्रथम सुनवाई में सभी दायित्वों से मुक्त कर सकता है, उसे खर्चे प्रदान कर सकता है व वादी का नाम वाद से खारिज कर सकता है।
b) जहाँ पर न्यायालय न्याय व सुविधा के लिए उचित समझे वहाँ वह वाद के सभी पक्षकारों को वाद का अन्तिम निपटारा होने तक वाद के पक्षकार बनाए रख सकता है।
2. जहाँ पक्षकारों की स्वीकृति व अन्य साक्ष्य पर्याप्त हैं जिनके आधार पर न्याय निर्णयन किया जा सकता है वहाँ न्यायालय दावाकृत वस्तु पर हक का न्याय निर्णयन कर सकता है।
3. परन्तु जब पक्षकारों की स्वीकृतियों के कारण न्यायालय द्वारा विवादित वस्तु पर हक का निर्णय करना संभंव न हो तो न्यायलय आदेश दे सकता है कि
a) पक्षकारों के बीच विवाद्यक या विवाद्यकों की रचना की जाए औऱ उनका विचारण किया जाए व मूल वादी के बदले या उसके अतिरिक्त किसी दावेदार को वादी बना दिया जाए।
b) मूल वादी के बदले या उसके अतिरिक्त किसी दावेदार को वादी बना दिया जाए।
नियम 5
कोई अभिकर्ता अपने मालिक पर या अधिभारी (tenant) अपने भू-स्वामी पर अन्तराभिवाची वाद संस्थित नहीं कर सकता ताकि किन्हीं ऐसे व्यक्तियों के साथ अन्तराभिवचन कर सके जो ऐसे स्वामियों या भू-स्वामियों के माध्यम से दावा करने वाले व्यक्तियों से भिन्न हैं।
नियम 6
यदि वाद सही तरह से दायर किया जाए तो वहाँ न्यायालय मूल वादी के खर्चों के लिए उपबन्ध दावाकृत चीज पर उसका भरा डालकर अन्य प्रभावी तौर पर कर सकेगा।
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